मेरे जुलाई रुपी खिड़की से जब बारिश के घर की ओर देखा, पलक झपकते ही बचपन के दिन याद आ गए| 80 और 90 के दशकों में हमे इन्टरनेट की नज़र नहीं लगी थी; और ना ही कंप्यूटर की उतनी आवश्यकता हुआ करती थी, हाँ सिखने की चाह थी, मगर ज़िन्दगी हमारी खेलने-कूदने में और दोस्तों के साथ वक़्त बिताने में गुज़रा करती थी| किसी सड़क के किनारे बैठकर दोस्तों के साथ चाय पीना, गंगा के किनारे बैठकर किताब पढ़ना, पूरे दिन क्रिकेट खेलकर घर जाकर पिताजी से डांट सुनना, और बारिश में भीगकर कीचड़ में फुटबॉल खेलना|
उन दिनों इश्क़ का भी अपना अलग मज़ा हुआ करता था - स्कूल या कॉलेज में कोई लड़की पसंद आ जाए, तो दिल में एक खलबली सी मची रेहती थी; कि उससे कैसे अपने दिल की बात की जाए, दोस्ती कैसे की जाए - कभी दोस्तों से पैगाम भेजना तो कभी उसकी कॉपी में एक छोटा सा नोट छोड़ना, और कभी-कभी हिम्मत जुटाके उसके रूबरू होकर अपने दिल की बात कहना; शुकर है उन दिनों फेसबुक नहीं था - उस खलबली में, उस बेचैनी में जो मज़ा था वो फेसबुक पर कहाँ|
और कभी अगर घर के लैंडलाइन पे किसी लड़की का फ़ोन आ जाए, और पिताजी ने फ़ोन उठा लिया - तो शामत एक नए रूप में आपके सामने खड़ी हो जाती थी; हाँ मोबाइल फ़ोन नहीं था पर उसके ना होने का कोई दुःख भी नहीं था| उस वक़्त लोग एक दुसरे से रूबरू मिलते थे जब एक दुसरे को देखना चाहते थे - मोबाइल पर ना तस्वीरें भेजने का साधन था और ना ही स्काइप पर विडियो कालिंग करने का - अब भला किसी इंसान के साथ गंगा किनारे बैठकर बात करने में जो आनंद है, वो विडियो कॉल में कहाँ|
जब कभी किसी दोस्त का जन्मदिन होता था, तो सारे दोस्त उसके यहाँ हल्ला बोल देते थे, और पार्टी चाय के दूकान पर या फिर किसी छोटे केक के दूकान में होती थी, कैफ़े-कॉफ़ी-डे और मधुशाला का चलन नहीं था; उस चाय-बिस्कुट और केक में जो आनंद था वो आज दो-सौ रूपये के कॉफ़ी में या फिर ब्लैक-लेबल के लार्ज पेग में भी नहीं होता|
अक्सर अपने दौड़-भाग भरी ज़िन्दगी से नज़रें बचाके, जी लेता हूँ आज भी उन सुनहरे दिनों को - वहां से वापस लौटने का मन तो नहीं होता, पर हाँ उस ख़याल में मेरी सबसे अज़ीज़ साँसे ज़रूर बसती हैं| कोशिश येही रहती है कि वो बचपन के दिन मेरी ज़िन्दगी से, मेरी यादों से कहीं ओझल ना हो जाएँ, इसलिए घूम आता हूँ उन गलियों में आज भी मौका निकालके; आखिर इसी को तो जीना केहते हैं|
उन दिनों इश्क़ का भी अपना अलग मज़ा हुआ करता था - स्कूल या कॉलेज में कोई लड़की पसंद आ जाए, तो दिल में एक खलबली सी मची रेहती थी; कि उससे कैसे अपने दिल की बात की जाए, दोस्ती कैसे की जाए - कभी दोस्तों से पैगाम भेजना तो कभी उसकी कॉपी में एक छोटा सा नोट छोड़ना, और कभी-कभी हिम्मत जुटाके उसके रूबरू होकर अपने दिल की बात कहना; शुकर है उन दिनों फेसबुक नहीं था - उस खलबली में, उस बेचैनी में जो मज़ा था वो फेसबुक पर कहाँ|
और कभी अगर घर के लैंडलाइन पे किसी लड़की का फ़ोन आ जाए, और पिताजी ने फ़ोन उठा लिया - तो शामत एक नए रूप में आपके सामने खड़ी हो जाती थी; हाँ मोबाइल फ़ोन नहीं था पर उसके ना होने का कोई दुःख भी नहीं था| उस वक़्त लोग एक दुसरे से रूबरू मिलते थे जब एक दुसरे को देखना चाहते थे - मोबाइल पर ना तस्वीरें भेजने का साधन था और ना ही स्काइप पर विडियो कालिंग करने का - अब भला किसी इंसान के साथ गंगा किनारे बैठकर बात करने में जो आनंद है, वो विडियो कॉल में कहाँ|
जब कभी किसी दोस्त का जन्मदिन होता था, तो सारे दोस्त उसके यहाँ हल्ला बोल देते थे, और पार्टी चाय के दूकान पर या फिर किसी छोटे केक के दूकान में होती थी, कैफ़े-कॉफ़ी-डे और मधुशाला का चलन नहीं था; उस चाय-बिस्कुट और केक में जो आनंद था वो आज दो-सौ रूपये के कॉफ़ी में या फिर ब्लैक-लेबल के लार्ज पेग में भी नहीं होता|
अक्सर अपने दौड़-भाग भरी ज़िन्दगी से नज़रें बचाके, जी लेता हूँ आज भी उन सुनहरे दिनों को - वहां से वापस लौटने का मन तो नहीं होता, पर हाँ उस ख़याल में मेरी सबसे अज़ीज़ साँसे ज़रूर बसती हैं| कोशिश येही रहती है कि वो बचपन के दिन मेरी ज़िन्दगी से, मेरी यादों से कहीं ओझल ना हो जाएँ, इसलिए घूम आता हूँ उन गलियों में आज भी मौका निकालके; आखिर इसी को तो जीना केहते हैं|